गढ़भोज क्या है?और इसके उत्पाद इतने लाभदायक क्यों हैं? What is garhbhoj and why are its products so beneficial?
गढ़भोज उत्तराखंड के पारंपरिक फसलों से बने भोजन को गढ़भोज कहते हैं।यह भोजन केवल पेट ही नहीं भरता बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक और पोषण तत्वों से भरपूर होता है। उत्तराखंड की ये फसलें आज लुप्त के कगार पर खड़ी हैं।अब समय आ गया है इन फसलों और उत्पादों को बचाने का आज भी हमारे उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में गढ़भोज का सेवन करने वाले लोग जी रहे हैं वे लगभग 85 साल से 105 साल तक की उम्र के हैं। उनकी जीवन शैली और खान-पान पर बात करते हैं तो जानकारी मिली कि इतनी लम्बी उम्र जीने का राज है। पहाड़ी जीवन शैली और गढ़भोज अर्थात पहाड़ी फसलों से बने भोजन /व्यंजनों का उपयोग करना। ये वे फसलें हैं जो शुद्ध जैविक खाद भौगौलिक क्षेत्र में और जलवायु में नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होने वाली फसलों और उपज से बना भोजन का जीवन में खान-पान का मुख्य हिस्सा रहा है।
आज के दौर में जिस प्रकार से पर्यावरण एवं जीवनशैली में बदलाव आये हैं। उसमें गढ़भोज का महत्व बहुत बढ़ जाता है।यह पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण धरती परमानव के लिए खजाने की तरह हैं।आज इनके संरक्षण,उत्पादन,और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार परक जन जागरूकता की भी बड़ी आवश्यकता है।इसके उत्पादों के महत्व को राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार -प्रसार की भी आवश्यकता है।साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में इन फसलों को उगाने वाले किसानों, समूहों को प्रोत्साहित करने और सहयोग की भी आवश्यकता है। आइये जानतें हैं इन फसलों के बारे में -
मंडुवा /कोदा/रागी-
मंडुआ को देशभर में अलग-अलग नामो से जाना जाता है किन्तु ज्यादा प्रचलित कन्नड़ नाम रागी है। अंग्रेजी में इसे फिगर मिलेट कहते है। उत्तराखण्ड के गढवाल, कुंमाऊ में कोदा नाम ज्यादा प्रचलन में है। दुनियां में जितने अनाज है, उनमें पौष्टिकता की दृष्टि से मंडुआ सबसे शिखर पर है। स्त्री, पुरूष, बच्चें एवं बूढे सबके लिए यह बहुत उपयोगी है। बढते बच्चों के लिए तो यह और भी उपयोगी है, क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा कैल्शियम पाया जाता है। वर्षो पहले उत्तराखण्ड के निवासी मंडुआ को अपने दैनिक खानपान मे जरूरी मानते रहे हैं। तत्काल दुर्घटनावश ऊंची चोंटी या पेड़ से गिरने पर भी उनकी हड़डी नही टूटती थी। मंडुआ की रोटी गेहूं की रोटी की अपेक्षा बनाने में आसान नही है, क्योंकि आटा हाथों में चिपकता है और गोली बनाते समय इस पर पलेथण (सूखा आटा) भी काम नही करता। इसलिए ताजा आटा गूंथते जाइए और हाथों में पानी लगाकर रोटी बनायी जाती है। मंडुआ की रोटी गरमा-गरमा खाने में ज्यादा स्वादिष्ट लगती है, लेकिन कुदरती-असली स्वाद घर के ताजा मक्खन या घी के साथ ही आता है। मंडुआ की रोटी के साथ कंडाली की कापली, राई, लाई व पालक का साग, झोली, कढी, गहत का फांणा व डुबका आदि स्वाद में चार चांद लगा देते है। मंडुआ की अकेली रोटी बनाने में यदि समस्या हो तो गेहूं के आटे के साथ मिश्रित करके बना सकते है। बाहर से गेहूं की रोटी और अन्दर मंडुआ की गरमा-गरम रोटी घी और सब्जी के साथ खाये। इसे सचमुच की डबल रोटी कह सकते है। यहीं मंडुवे के हलवे को कुमांऊ में कोदा का लेटा कहते है।जबकि गढ़वाल में बाड़ी कहते है।इसे हलवे की तरह ही बनाया जाता है।
मरसा (राम दाना)
गढवाली में मरसा, कुमांऊनी में चू या चुआ,। हिन्दी में चौलाई व देशभर में रामदाना के नाम से जाना जाता है। व्रत, नवरात्रों में रामदाना को फलाहार के रूप में परोसा जाता है। रामदाना दुनिया का सबसे पुराना खाद्यान्न है। पौष्टिकता की दृष्टी से रामदाने के दानों में गेहूं के आटे से दस गुना कैल्शियम, तीन गुना वसा तथा दुगुने से अधिक लोहा होता है। धान और मक्का से भी यह श्रेष्ठ है। शाकाहारी लोगों को रामदाना खाने से मछली के बराबर प्रोटीन मिलता है। रामदाने का हरा साग भी बहुत उपयोगी है। रामदाना की रोटी मीठी होती है, किंतु आटा बहुत चिपचिपा होता है। इसलिए रोटी मुश्किल से बनती है। आधुनिक खान-पान में भूने रामदाने के आटे से हलवा, बर्फी, बिस्कुट, केक, शक्करपारा एवं पॉरिज आदि शौकीन लोग बनाने लगे है।
झंगोरा – लाईसिन प्रोटीन, सिस्टीन प्रोटीन, आईसोल्यूसनी प्रोटीन, लोहा रेशा पाया जाता है। यह शूगर से बीमार लोगो के लिए उपयुक्त है।
कौंणी – ऊर्जा कैलोरी प्रोटीन, खसरा रोग, शूगर व पोलियो हेतु लाभकारी।
कण्डाली – लोहा, फेरफिक ऐसिड, एस्टील थोलाइट, विटामिन ए, चांदी तत्व पाये जाते है और यह पेट की गैस भी खत्म करती है। यही नहीं पीलिया, हर्निया, पाण्डु उदर रोग, बलगम, गठिया रोग, चर्बी कम करना, स्त्री रोग, किडनी, एनीमिया, साईटिका, हाथ पांव में मोच पर कण्डाली रक्त संचचरण का काम करती है। कैन्सर रोधी है व एलर्जी खत्म करती है।
लाल चावल – विटमीन-ए पाया जाता है। शूगर फ्री, आंखों की रोशनी के लिए लाभदायक है।
गहत दाल – पथरी रोग के लिये लाभदायक है।
काला भटट – ओमेगा पाया जाता है। रोग प्रतिरोधक शक्ति बढाता है।
मीठा करेला – मधुमेह की प्रभावशाली दवा है, चमड़ी रोग, कुष्ठ रोग, कील मुहांसे के लिए लाभदायक है।
बुरांश जूस – हृदय रोगीयों के लिये लाभदायक होता है।
लेंगुड़ा – लोहे की मात्रा भरपूर पायी जाती है।
ओगल- कभी उत्तराखंड की मुख्य फसल होती थी। ओगल पूरे हिमालय क्षेत्र में हरी सब्जी के काम आता है। ओगल घरेलू उपचार में भी औषधीय प्रयोग में भी काम आता है जैसे खून की कमी होने पर लोहे कढ़ाई में इसकी सब्जी बनाना,और रोगी को खिलाना।
पहाड़ी दालें-बहुत प्रकार की दालें जैसे कालेभट,राजमा, सोयाबीन,गहत,रंयास,लैंगल,मास(उड़द) जो स्वादिष्ट और पौष्टिक आहार में उत्तम हैं।
भंगजीरा,भांग,चटनी और सब्जी को स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाती हैं।यह दवाई बनाने के काम भी आती है।
यह फसलें है पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी बहुत उपयोगी रही हैं।
पहाड़ी किसान अपने छोटी जोत वाले खेतों और छोटे बागीचों में हाड़ तोड़ मेहनत कर सब्जी, दालें, अनाज, फल आदि कृषि उत्पाद पैदा करते है। राज्य बनने के बाद पहाड़ी किसानो की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखाई दे रहा है। बावजूद इसके किसान अपने उत्पादों को बिचौलियों के माध्यम से ही उपभोक्ताओं तक पहुंचा रहे है।
औने-पौने दामों पर किसानो के उत्पाद खरीद कर बाजार में बेचने वाले बिचौलिये खूब फल फूल रहे है। परिणामस्वरूप लोग छोटे-उत्पादों को या तो उत्पादन करना ही बंद कर दे रहे हैं या जिनके पास ऐसे उत्पाद हैं भी, वे इसे बाजार की शक्ल नहीं दे पा रहे हैं। इस पर हम सभी का प्रयास स्थानीय स्तर पर ही स्थानीय उत्पादो को लोगो से क्रय करके ‘‘गढभोज व गढ बाजार’’ के माध्यम से पहाड़ी उत्पादो का बाजार विकसित करने और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार बढ़ाने का प्रयास होना चाहिए। हालांकि उत्तराखंड में 7अक्टूबर को सरकार इसे गढ़भोज दिवस के रूप में मनाती हैं। लेकिन इसमें आम जनमानस और सामाजिक संगठनों के जुड़ जाने से अधिक परिणाम आ सकते हैं।