महात्मा ज्योतिबा फूले कैसे सामाजिक समरसता के प्रतीक थे? Social Harmony
समर्थक थे। भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और बाल विवाह के सख्त विरोधी थे। महात्मा ज्योतिबा फुले ने सितंबर 1873 में महाराष्ट्र में सत्यशोधक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के गठन का मूल उद्देश्य स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करना।बाल विवाह का विरोध,विधवा विवाह का समर्थन करना, समाज की कुप्रथा अंधविश्वास,जातिप्रथा, और अन्य सामाजिक कुरीतियों का विरोध करना था। उन्होने अपना संपूर्ण जीवन स्त्रियों को शिक्षा प्रदान करने में स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में व्यतीत किया।
19वीं सदी में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। फुले महिलाओं को स्त्री पुरुष भेदों से बचाना चाहते थे। उन्होंने कन्याओं के लिए भारत देश की पहली पाठशाला पुणे में खोली थी। उनका विवाह 1840मे सावित्रीबाई फुले से हुआ था। ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले की कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने एक बच्चे को गोद लिया था।
यह बच्चा बड़ा होकर एक डॉक्टर बना। और उसने भी अपने माता-पिता के समाज सेवा कार्य को आगे बढ़ाया।बचपन मे ज्योतिबा फुले ने कुछ समय पहले तक मराठी में अध्ययन किया परंतु लोगों के यह कहने पर कि पढ़ने से तुम्हारा पुत्र किसी काम का नहीं रह जाएगा पिता गोविंदराव ने उन्हें स्कूल से छुड़ा दिया।जब लोगों ने उन्हें समझाया तो तीव्र बुद्धि के बालक को फिर स्कूल में जाने का अवसर मिला। और 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की। ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही विवाह संस्कार आरंभ कराये।और इसे मुंबई हाईकोर्ट की ओर से भी मान्यता मिली। समाज सेवा देखकर 1888 में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें महात्मा की उपाधि दी गई।1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक संस्था की स्थापना की थी। और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन भी हुआ।
उनका सबसे पहला महत्वपूर्ण कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिए था और उनकी पहली अनिवार्य खुद उनकी पत्नी थी अपनी कल्पना के अनुरूप और न्याय संगत और एक समाज बनाने के लिए 1854 में ज्योतिबा ने लड़कियों के लिए जो स्कूल खोला था। यह देश का पहला विद्यालय था जो लड़कियों के लिए था। उनकी पत्नी सावित्री अध्यापन कराती थी। वहां जाति धर्म तथा पंथ के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं था। और उसके दरवाजे सभी के लिए खुले थे। वे ऐसी महिलाओं से बहुत सहानुभूति रखते थे जो शोषण का शिकार हुई हो या किसी कारणवश परेशान हो। इसलिए उन्होंने ऐसी महिलाओं के लिए अपने घर के दरवाजे हमेशा खुले रखे थे ।जहां उनकी देखभाल हो सके दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए सत्यशोधक संस्था कार्य करती थी।
महात्मा फूले ने 1873 मे ही अपनी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन किया। बहुत कम पृष्ठों की यह किताब थी। लेकिन इसमें बताए गए विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिण भारत में बहुत सारे आंदोलन चले उत्तर प्रदेश में चल रहे दलित अस्मिता की लड़ाई के ऊपर बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढे जाते थे। प्रतिबद्ध समाज सुधारक, वंचितों-उपेक्षितों के प्रखर स्वर महात्मा ज्योतिबा फुले ने जाति प्रथा, असमानता, अशिक्षा जैसी समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों के उन्मूलन हेतु बहुत संघर्ष किया,समाज के लिए वे प्रेरणाप्रद और समूची मानवता के लिए मार्गदर्शक है।
आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसे क्रांतिकारी विचारक और सामजिक समरसता के पुरोधा का आभारी रहेगा।